CPC की धारा 100 के अनुसार द्वितीय अपील का दायरा , प्रथम अपील के दायरे से काफी कम है ।
द्वितीय अपील विधि अथवा प्रक्रिया सम्बन्धी भूल के आधार पर लायी जाती है न कि अधीनस्थ न्यायालय द्वारा दिये गये तथ्य के निष्कर्षों की त्रुटि के आधार पर ।
👉 तथ्य के निष्कर्षों की त्रुटि , प्रक्रिया में त्रुटि से भिन्न है ।
लेकिन यह स्थिति संशोधन अधिनियम , 1976 द्वारा बदल दी गयी है । अब धारा 103 के पुनर्स्थापित करने के पश्चात् यह स्पष्ट कर दिया गया है कि तथ्य का वाद बिन्दु द्वितीय अपील में तय किया जा सकता है ।
धारा 103 इस प्रकार है “व्यक्त तथ्य विवाद्यकों का अवधारण करने की न्यायालय उच्च न्यायालय की शक्ति” –
यदि अभिलेख में का साक्ष्य पर्याप्त हो तो किसी भी द्वितीय अपील में निष्कर्ष उच्च न्यायालय ऐसी अपील के निपटारे के लिए आवश्यक कोई विवाद्यक अवधारित कर सकेगा , जो –
( a ) निचले अपील न्यायालय द्वारा या प्रथम बार के न्यायालय और निचले अपील न्यायालय दोनों द्वारा अवधारित नहीं किया गया है , अथवा
( b ) धारा 100 में यथावर्णित विधि के ऐसे प्रश्न में विनिश्चय के कारण ऐसे न्यायालय या न्यायालयों द्वारा गलत तौर पर अवधारित किया गया है ।
दुर्गा चौधरानी बनाम जवाहर सिंह , ( 1891 ) 18 कलकत्ता 23 ( पी . सी . ) के मामले में प्रिवी कौंसिल ने इस प्रकार व्यक्त किया है कि
” किसी त्रुटिपूर्ण तथ्य के निष्कर्ष के आधार पर कोई द्वितीय अपील ग्रहण करने का क्षेत्राधिकार नहीं है चाहे त्रुटि कितनी ही बड़ी तथा अक्षम्य क्यों नहो । “
इसमें संदेह नहीं है कि जहाँ प्रक्रिया में कोई सारवान् त्रुटि या अभाव हो , द्वितीय अपील होती है किन्तु किसी तथ्य के त्रुटिपूर्ण निष्कर्ष किसी प्रक्रिया सम्बन्धी त्रुटि से भिन्न वस्तु है ।
👉 जहाँ प्रक्रिया में कोई त्रुटि या गलती नहीं है तो किसी तथ्य के प्रश्न पर प्रथम अपीलीय न्यायालय का निष्कर्ष अन्तिम होता है ।
👉 यदि उस की न्यायालय के समक्ष उस निष्कर्ष के समर्थन के लिए समुचित साक्ष्य विद्यमान था ।
द्वितीय अपील में तथ्य के निष्कर्ष में हस्तक्षेप उसी अवस्था में किया जा सकता है जब अपीलीय न्यायालय द्वारा अभिलेख के सारवान् साक्ष्य पर विचार नहीं किया गया है |
➡️ सर्वोच्च न्यायालय ने हाल के मामलों में यह धारणा व्यक्त की है कि अपीलीय न्यायालय , जिसकी डिक्री से अपील की गई है , के तथ्य सम्बन्धी निष्कर्ष में उच्च न्यायालय के हाथ बाँध दिये गये हैं ।
➡️ उच्च न्यायालय तथ्य सम्बन्धी निष्कर्ष में हस्तक्षेप नहीं कर सकता ; चाहे वह कितना भी त्रुटिपूर्ण क्यों न हो ।
सर्वोच्च न्यायालय ने आगे यह भी धारणा व्यक्त की है कि जहाँ साक्ष्य का मूल्यांकन प्रथम न्यायालय द्वारा साक्षी की मुद्रा या चेष्टा ( Demeanour ) पर आधारित हो तो अपीलीय न्यायालय तथ्य के निष्कर्ष में हस्तक्षेप तब तक नहीं करेगा जब तक कि ऐसे आधार विद्यमान हैं जो कि सिद्ध करते हैं कि विचारण न्यायालय का तथ्य सम्बन्धी निष्कर्ष नहीं किया जा सकता था ।
ऐसे मामलों में यदि उच्च न्यायालय यह समझता है कि प्रथम अपीलीय न्यायालय द्वारा प्रयुक्त शक्तियों के अन्तर्गत विचारण न्यायालय द्वारा साक्षियों के सम्बन्ध में उसकी धारणा पर आधारित निकाले गये निष्कर्ष में हस्तक्षेप करना न्यायसगत नहीं था तो उच्च न्यायालय तथ्य सम्बन्धी निष्कर्ष में हस्तक्षेप करेगा और अधीनस्थ अपीलीय न्यायालय की डिक्री रद्द करेगा ।
तथ्य का समवर्ती निष्कर्ष –
एच . एम . मॉडल बनाम डी . आर . बीदी , 1971 कलकत्ता 162
कलकत्ता उच्च न्यायालय ने यह धारणा व्यक्त की है कि वादी का योग्य कब्जे का मामला दोनों अधीनस्थ न्यायालयों में से किसी एक के द्वारा स्वीकार न किये जाने पर तो हक की घोषणा के तथा कब्जे की पुष्टि के लिए कोई वाद द्वितीय अपील में सफल नहीं हो सकता , ऐसा प्रश्न द्वितीय अपील में नहीं उठाया जा सकता ।